सोमवार, 16 मई 2011

गढ़वाली कुमाऊँनी की अपनी विशेषताए


॥ ॐ श्री गणेशाय: नम: ॥



इस ब्लाग और लेख की शुरुआत मे पहला लेख ['मध्य हिमालय मे शिक्षा व शोध' से डा. गुणानन्द जुयाल द्वारा लिखित लेख के अंश जिसमें कुमाऊंनी/गढवाली शब्दो की कुछ विशेषताये....] जो मैं सांझा कर रहा हूँ इसे आप जरूर पढे और २-४ बार पढे। इसके साथ ही उस पृष्ठ के चित्र भी आप लोगो को जोड़ रहा हूँ साथ मे।
इसे पढ़कर आप स्वयं जान जायंगे की क्या फरक है और बातचीत के दौरान कैसे ख्याल रखा जाये। शब्दो से तो अब आप को रूबरू कराया जाएगा इस ब्लाग के द्वारा। सोचा थोड़ा डा. जुयाल जी के इस लेख से आपको कुछ आसान तरीका बताया जाये, भाषा के अंतर को जाना जाये और कैसे बोला जाये।
      अब प्रश्न यह है गढ़वाली कुमाऊँनी की अपनी विशेषताए क्या हैं ? इन दोनों बोलो में प्राय: साम्य है, किन्तु कुमाऊँनी की प्रवृति द्वस्तव की ओर है क्योंकि कुमाऊँ मे बहुत समय तक चंदवंशीय राजाओ का राज्य रहा। अत: अवधी प्रदेश से अनेकों ब्राह्मण, क्षत्रिय, भृत्य आदि के कुमाऊँ में आने से अवधी की प्रवृति द्वस्तव की ओर है। यही कारण है की कुमाऊँनी बोली मे अंतिम स्वर या तो फुसफुसाहट वाला हो जाता है या लुप्त। गढ़वाली की प्रवृति दीर्घत्व की ओर है। उदाहरणार्थ गढ़ : इथै, इनै, उथै, उनै ।  कुमाऊँ: एति, उति। गढ़ : दोफरा,  कुमाऊँ: दोफरि।
२.      गढ़वाली में दो ध्वनियाँ सर्वथा अपनी है । इनका प्रयोग अन्य किसी भी भारतीय भाषा मे नहीं मिला। केवल बिहारी मे इसका प्रयोग स्वराघात के समय किया जाता है। जैसे उहु गयलड (क्या वह भी गया) यह ध्वनि आ की दीर्घ ध्वनि अs  है। इसे मैंने s लगाकर प्रकट किया है। पाणिनी के अनुसार तुल्यास्यप्रयत्नम सवर्ण अर्थात जिन स्वरो के उच्चारण में मुख का प्रयत्न न बदले केवल उच्चारण काल कम और अधिक हो जिसे हस्व, दीर्घ और प्लुत कहा गया है। जैसे की दीर्घ सवर्ण है का है। उसी प्रकार का s’ है ना की जैसा की संस्कृत के व्याकरणचार्यों ने और उनके पश्चात हिन्दी के वैययकरणीयोंने माना है। क्योकि के उच्चारण मे प्रयत्न बादल जाता है। मुख पूरा खुल जाता है। पीछे की ओर जिह्वा ऊपर उठा जाती है। अत: गढ़वाली का अs जैसे सsदो पाणी,sड़ (कूड़ा करकट),sर आदि मे है का स्वर्ण दीर्घ है। शायद किसी भाषा मे इसका प्रयोग न पाकर ही व्याकरणचार्यों ने का दीर्घ स्वर आ मान लिया।
३.      दूसरी ध्वनि गढ़वाली मे ल की विशेष ध्वनि ल है। यह भी शुद्ध व्याकरण के अनुसार ही है। पाणिनी ने लृतुलसानाम दांत: कहा है अर्थात ल दंतय ध्वनि है किन्तु आज का भाषा विज्ञानी इसे दाँतो की जड़ के पीछे वर्त्स को ल का उच्चारण स्थान मनता है न की दाँतो को। किन्तु गधवाले की दूसरी जिसे मैंने का रूप दिया है दंत्य ध्वनि है। इसका उच्चारण जिह्वा के अग्रभाग को ऊपर दाँतो के नोक पर लगाने से होता है। इससे अर्थ मेन अंतर हो जाता है। य,,, व के स्वर और व्यजनों की अंतस्थ ध्वनियाँ माना गया है। यदि देखा जाये तो गढ़वाली ध्वनि ही अंतस्थ है ध्वनि पूर्ण स्पर्श है। कालो (काला) कालो (सीधा साधा ), गाल[गाली], गाल[कपोल]। खाल [पहाड़ो पर बीच का नीचा स्थान], खालडो[खाल चमड़ा]। ताल[नीचे], ताल [तालाब]! ल से पूर्व क,,, फारसी के क़ ख़ ग समान ध्वनित होते है। कुमाऊँनी मे इसके स्थान पर हो जाता है।  कालो – कावो , गाली – गाइ, कहीं ल भी हो जाता है जाइए खाल –खाल।
४.      इसके विपरीत कुमाऊँनी मे भी अ और आ के बीच एक ध्वनि आ। यह ध्वनि ऐसे शब्द मे उच्चारित होती है जिसमे  किसी व्यंजन से पूर्व और पश्चात (आ) ध्वनि आती है तो बाद मे आने वाली आ, आ मे परिणत हो जाती है। जैसे दगाड़ा, बाड़ा।
५.      जहां गढ़वाली मे ड, ढ और द, ध से पूर्व अनुस्वार होता है वहाँ कुमाऊँनी मे व्यंजनो के स्थान प न हो जाता है जैसे डाँडो – डानो, ढूंढ – ढून, मुदड़ी – मुनारी, जांदरों – जानरो, अंधेरों – अन्योर।
६.       गढ़वाली और कुमाऊँनी दोनों मेन प्राय: स के स्थान पर श और श के स्थान पर स का प्रयोग होता है। जैसे सब –शैव, स्यु – श्यु, रीस – रिश, साह – शा।
७.      गढ़वाली मे सहायक क्रिया  आले स्थान पर कुमाऊँनी मे हाले हो जाता है।  जैसी खाइ-आले, खाइ-हाल: और के स्थान पर हौर हो जाता है
८.      गढ़वाली के होयों के स्थान पर कुमाऊँनी मे भयो, चल्णो  के स्थान पर हिटनों तथा खड़ा होणों के स्थान पर ठाड होणो का प्रयोग होता है। जयूं छ [गया हुआ है] के स्थान पर जै रै छ का प्रयोग होता है। क्या के स्थान पर के का प्रयोग होता है।
९.       गढ़वाली मे खड़ी बोली के समान ओं या औं प्रतय्य लगाकर बहुवचन रूप बनता है जबकि कुमाऊँनी मे बीआरजे और अवधि की भांति न लगा जर शब्द का बहुवचन विकारि रूप बनता है। घ्वाड़ों थें [या घ्वाडौ सणि] होगा घ्वाड़न कणि।
१०.    पर सरगा भी कुछ भिन्न है। न-ले , सणि – कणि, टे-ले, सणि- कणिया हुणि,टि –है, हैवेरे; मां – में आदि करता; कर्म करण, संप्रदान, अपादान करण कारको के परसरगो मे भिन्नता पाई जाती है।
११.     अव्यय के प्रयोग मे भी भिन्नता है। याख, ऊख आड़ो स्थान वाचक अव्ययों के स्थान पर याँ, वा, इनै, उनै आदि के स्थान पर योति, उति आदि। इतगा, उतिगा के स्थान पर कुमाऊँनी मेन एतुक, उतुक आदि परिणाम वाचक क्रियाविशेषण पाये जाते है।
--------------------------------------------------------------------
आप लोगो की राय का इंतज़ार भी रहेगा क्योकि मैं भी सीखने की कोशिश कर रहा हूँ और आप लोग भी मेरे साथ सीख जाये दोनों भाषाओ को तो उत्तराखंड नाम का असली लुत्फ उठा सके हम लोग। [कहीं लिखने मे कोई गलती हो तो जरूर बताए ताकि उसे ठीक किया जा सके]

आपका अपना
प्रतिबिंब बड्थ्वाल
आबु धाबी, यूएई 
center> Related Posts Plugin for WordPress, Blogger.../center>